आजादी के अमृत महोत्सव के अंतर्गत आजादी : एक शब्द कितने मायने! विषय पर सेमिनार आयोजित। आजादी की कीमत पिंजरे में कैद तोता ही जान सकता है, जिसके पंख फड़फड़ाकर स्वर्ण सलाखों से टकरा रहे हैं, जिसकी आत्मा कैद की गुलामी से आजाद होने के लिए तड़प रही है। चीत्कार और पुकार के बीच संघर्ष करता यह तोता उन तमाम लोगों का प्रतीक है जिनको 15 अगस्त 1947 से पहले अंग्रेज सरकार अपने तलवे चाटने को विवश कर रही थी। भारतीयों को दास की तरह इस्तेमाल किया जा रहा था। इज्जत को चाबुक की मार से तार-तार किया जा रहा था। बहन-बेटियों की देह के साथ खेला जा रहा था। नन्हे-मुन्ने बच्चों को अंग्रेजों के घरों में काम करने के लिए ठेला जा रहा था। इंसानियत को पेला जा रहा था। अनावश्यक कर और लगान की मार किसानों की कमर तोड़ रही थी। चहुंदिशा क्रूरता और नरसंहार के इस खेल को देख थरथरा रही थी। अब अंतरमन से आवाज आ रही थी कि आखिर कब तक गुलामी में हाथ सैल्यूट ठोकते रहेंगे? कब तक अंग्रेजों के हुक्म को अपने ही जमीन पर झेलते रहेंगे? आत्मा की पीड़ा और लाखों भारतीयों की हुंकारों ने आगाज किया इंकलाब की लड़ाई का और टूट पड़े असंख्य पुरोधा स्वतंत्रता के समर में देश को गुलामी की जंजीरों से मुक्त कराने के लिए और गूंजने लगा यह स्वर।
