नारायणी देवी राजस्थान के नेता स्वर्गीय माणिक्यलाल वर्मा की धर्मपत्नी थी। उनका जन्म मध्यप्रदेश के ग्राम सिंगाली में श्री रामसहाय भटनागर के घर हुआ था। उनकी शिक्षा बचपन में सामान्य ही हो सकी थी। विवाह के बाद उन्होंने विविध ग्रन्थों के अध्ययन से तथा अपने पति के साथ राष्ट्रीय आन्दोलनों में कार्य करते-करते अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास किया था। नारायणी देवी ने अपनी उम्र के बीसवें वर्ष से वर्माजी के साथ सार्वजनिक जीवन प्रारम्भ कर दिया था। बिजोलिया में शिक्षा और समाज-सुधार से शुरू किया गया उनका सार्वजनिक जीवन किसान सत्याग्रह, प्रजामण्ल सत्याग्रह और भारत छोड़ो आन्दोलन में निरन्तर गतिशील रहा और हर आन्दोलन में उन्हें जेल की यातनाओं से गुजरना पड़ा। बिजोलिया आन्दोलन के समय तो उन्हें कुम्भलगढ़ के किले में बंद कर दिया गया था। जब वर्माजी को मेवाड़ से निर्वासित किया गया था तो मेवाड़ सरकार ने इनके गृहस्थी की सारी सम्पत्ति जब्त करली थी। निर्वासन काल में उनके 15 वर्ष के पुत्र सत्येन्द्र का दवा के अभाव में देहावसान हो गया था। नारायणी देवी का सम्पूर्ण जीवन स्वर्गीय वर्माजी की प्रवृत्तियों के साथ गुँथा हुआ ही रहा परन्तु फिर भी उनकी अपनी चारित्रिक विशेषतओं के कारण स्वतंत्र रूप से भी उनका अपना अलग व्यक्तित्व बना। निःसन्देह उन्होंने वर्माजी की हर प्रवृत्ति को आगे बढ़ाने में बहुत बड़ा योगदान दिया था। वे सच्चे अर्थों में वर्माजी जैसे क्रान्ति पुत्र की पूरक थी। परन्तु 1944 के नवम्बर महीने में उन्होंने भीलवाड़ा मे महिला आश्रम नाम की एक संस्था स्थापित करके उस क्षेत्र की महिलाओं के सर्वांगीण विकास का कार्य अपने हाथ में लिया। यह संस्था अपने क्षेत्र में महिलाओं के बीच शिक्षा और संस्कारों का प्रचार कर रही हैं। नारायणी देवी ने पिछड़ी जातियों में समाज सुधार, शिक्षण कार्य और आदिवासी छात्रावासों की स्थपना की दिशा में बहुत कार्य किया, जिनमें आदिम जाति उद्योग केन्द्र, आदिम जाति छात्रावास सीमावर्ती छात्रावास, गाड़िय लौहार पाठशाला व छात्रावास और आदिवासी वन सहकारी समितियाँ प्रमुख हैं। नारायणी के भाई श्री गणपतलाल प्रजामण्ल के आन्दोलन में जेल गए थे। उनके पुत्र श्री दीनबन्धु और उनकी चार पुत्रियाँ 1942 के भारत छोड़ों आन्दोलन में उनके साथ जेल में गई। उनका पूरा परिवार राष्ट्रीय कार्यों में लगा रहा।