धुर्वाराव दक्षिण बस्तर के लिंगागिरी तालुका के तालुकेदार थे। इनका नाम कहीं-कहीं धर्माराव मिलता है। वे युवा तालुकेदार थे। सन् 1855 में ब्रिटिश शासन की सत्ता स्थापित होने के पश्चात् बस्तर पर भी ब्रिटिश शासन की स्थापना हो गई थी। धुर्वाराव माड़िया जनजाति कबीलंे के तालुकेदार थे, और अंग्रेजों के हस्तक्षेप के खिलाफ थे। अंग्रेजों के आने के साथ ब्रिटिश शासन के नियम भी आए। जिसके अनुसार जंगल संबंधी कानून और नयी लगान व्यवस्था लागू हुई, ये सभी नियम आदिवासी समाज के लिए कष्टदायक थे। अतः उसने 1856 में ही ब्रिटिश नियमों के विरूद्ध विद्रोह कर दिया।
ब्रिटिस शासन ने लाइसेंस दे कर ठेके पर जंगलों के पेड़ कटवाने के लिये ठेकेदार नियुक्त किये जो क्षेत्रीय लोगों को बंधक बनाकर बेगारी करा रहे थे। इसके विरूद्व धुर्वाराव ने माड़िया और दोर्ला आदिवासीयों को एकत्र कर विद्रोह कर दिया। मार्च 1856 के प्रथम सप्ताह में ही धुर्वाराव ने दक्षिण बस्तर में औपनिवेशिक सत्ता के विरूद्व विद्रोह का बिगुल फुक दिया, इस समय बस्तर के शासक राजा भैरवदेव थे, जो अंग्रेजी सत्ता को नापसंद करते हुए भी अपने को अलग रखा हुआ था। धुर्वाराव को अंग्रेजी विरोधी अन्य जागीरदारों का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से समर्थन मिलता रहा था। धुर्वाराव छापामार युद्ध प्रणाली अपना रहा था, वह ब्रिटिश नियंत्रण के ग्रामों में लूटमार करके लंबी लड़ाई के लिए रसद एकत्र करने लगा था। ब्रिटिश सरकार ने कैप्टन इलियट के नेतृत्व में एक बड़ी सेना क्षेत्र में रवाना किया, जिस पर धुर्वाराव ने 3 मार्च, 1856 को चिंतलनार की पहाड़ियों पर अपन तीरों से हमला कर दिया। इस समय उसके पास 3000 लड़ाके थे। किंतु भोपालपटनम का जमींदार अंग्रेजों से मिल गया था अतः दोपहर तक की लड़ाई के पश्चात् आदिवासी सेना के पास हथियारों की कमी के कारण ब्रिटिश सेना भारी पड़ने लगी तथा लगभग 460 माड़ियां औरतों और बच्चों को बंधक बना लिया, जिसमें धुर्वाराव के बच्चे और पत्नी भी थे। अतः उसे आत्मसमर्पण करना पड़ा, ब्रिटिश शासन ने दिखावे के लिए अदालत लगाकर, धुर्वाराव को फांसी की सजा सुना दी और उसे 5 मार्च, 1856 को फांसी दे दी गई।