बोधन दौआ शाहगढ रियासत के राजा बखतवली शाह के सेनापति थे। बखतवली के पूर्वज गढाकोटा के राजा मर्दन सिंह से ग्वालियर के राजा सिंधिया ने गढाकोटा इन्हें शाहगढ दे दिया था। 04 जनवरी, 1844 को गढाकोटा, सिंधिया से ब्रिटिश सरकार ने ले लिया। बखतवली अपने पूर्वजों के क्षेत्र गढाकोटा को वापस प्राप्त करना चाहते थे। 1857 की क्रांति के दौरान बखतवली शाह के सेनापति बोधन दौैआ ने 22 जुलाई, 1857 को एक भीषण आक्रमण कर गढाकोटा पर अधिकार कर लिया। गढ़ाकोटा पर अधिकार करने के पश्चात बोधन दौआ रहली रवाना हुआ। वहाँ का ब्रिटिश किलेदार गिरधारी नायक था। बखतवली ने बोधन दौआ की सहायतार्थ 2000 सैनिक, 500 लड़ाके एवं 3 तोपें रहली भेजी। रहली पर विजय प्राप्त कर ली गई एवं चतुर दौआ को रहली का किलेदार बखतवली द्वारा बना दिया गया। सागर के डिप्टी कमिश्नर ने लेफ्टिनेंट लासन को रहली की रक्षार्थ भेजा, मगर बोधन दौआ से टकराने की हिम्मत वह न जुटा सका और उल्टे पाँव वापस सागर लौट गया।इसके पश्चात बोधन दौैआ ने ब्रिटिश नियंत्रण वाले क्षेत्र गौरझामर, एवं देवरी पर भी आधिपत्य स्थापित कर लिया। ब्रिटिश सरकार ने उसे पकडने पर एक हजार रूपये का ईनाम घोषित किया। बोधन दौआ निरन्तर अंग्रजी सेना पर आक्रमण करते रहे। बोधन दौैआ की अधिक मदद करने के कारण उसके सहयोगी वदन राय को पकडकर 05 अप्रैल, 1858 को अंग्रेजों ने फांसी पर चढा दिया। लटकन एवं गनेश नामक दो बहादुरों ने बोधन दौैआ का साथ दिया था। मात्र बोधन दौैआ का साथ देने के अपराध में इन्हें ब्रिटिश सरकार ने पकडकर 06 अप्रैल, 1858 को तीन साल की कैद की सजा दी। 06 जुलाई, 1858 को शाहगढ राजा बखतवली के आत्मसमर्पण के पश्चात थी बोधन दौआ, तात्याटोपे की भांति अंग्रेजों को छकाता रहा और कभी पकडा नहीं जा सका।